मंगलवार, 17 मई 2016

चोर बाज़ारी


चोर बाज़ारी 

इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ,
उस से आँखे लगी तो ख्वाब कहाँ।
-'मीर तकी मीर'



यह दो  लाइनें,..ऐसा लगा जैसे जहन में है; एक दो शब्द जो कौंध रही थी, उन्हें ही 'GOOGLE' किया, और सामने आया यह शेर। कुछ हाल ही की एक फिल्म का गीत था:

अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ ,
वो जो बहते थे आबशार कहाँ ।

'रेखा भरद्वाज' की आवाज़ में यह गीत मुझे काफी  पसंद आया मैंने इसे बाद में कई बार सुना भी; पर देखा जाए तो  -'मीर तकी मीर' के शेर और 'गुलज़ार' के गीत में काफी अनभिज्ञता नज़र नहीं आती, केवल अल्फाज़ अलग हैं। लय में भे दोनों ऐसे बैठते हैं की, फ़िल्मी दृश्य (इश्किया)  में जब  'विद्या बालन' इसके लय को गुनगुनाती है (असल में रेखा भरद्वाज की आवाज़ ), तो आप पुराने शेर को याद कर सकते है। मैं पुख्ता तौर पे तो कुछ नहीं कह सकता पर मुझे तो गीत शेर की नक़ल लगती है। अगर ऐसा है भी तो यह अच्छी नकल है, मुझे पसंद आई 


कुछ ऐसे ही उद्धरण अंतरजाल पर खोजे मिल  जायेंगे, मैंने you tube पे भी कुछ videos देखा है, जिसमे इन बातों का जिक्र किया गया है, जैसे

ये मुंबई है मेरी जान           my dear clementine



'ये मुंबई है मेरी जान' गाने का जिक्र किया मैंने क्योंकि यह मुंबई में  बेहद लोकप्रिय हो चुकी है जिसकी धुन एक पश्चिमी कविता my dear clementine  की धुन से ली गयी हैं

उदाहरण कई है, पर जिस प्रकार you tube के videos में भारतीय जगत (सिनेमा , गीत या अन्य क्षेत्र) की बुराई की नज़र से देखा गया  है की - 'भारतीय चोरी में आगे हैं, और हम में कोई कलात्मक नवीनता नहीं है ';  मेरा मत इस बात को पूर्णतः सहमती नहीं देता है । 

नकल भी एक कला है, और कला में नकल, या कला की नकल तो कला को ही बढ़ावा देती है, न की चोरी को। (यहाँ लोग 'चोरी' शब्द को घरिन्ना की नज़रों से न देखें इसलिए मैं इसकी बजाय 'नकल' शब्द का प्रयोग करूँगा)  इस बात को उन लोगों को समझने की जरुरत है जो बेवजह ही अपने देश और समाज की की बुराई की उधेड़-बुन में भिड़े रहते हैं। दरअसल, मेरी नज़र में, ये वो लोग होते हैं जिन्हें अपने ही घर में खोट नज़र आते हैं, ये लोगों को जानने- समझने की परवाह नहीं करते। और ये वो लोग भी होते हैं जिन्हें पश्चिमी सभ्यता ही लुभाती हैं पर न इन्हें देश दुनिया की खबर होती जिनके तारीफ में जुट जाएँ अगर पूछो तो, यही लोग 'मद्रासी', बंगाली', बिहारी' और  'north east' जैसे शब्दों से लोगों को पुकारते और दुत्कारतें हैं; इनके लहजे में ताना और कर्कशता होती है । ये लोग कैसे नागरिक होते हैं इसका अंदाजा लगाया ही जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता ।  


नकल कला को बढ़ावा देती है:

बहुत समय पहले से मैं लता मंगेशकर का एक गीत सुना करता था, 'यारा सिली सिली', आपमें कियो ने सुना होगा, मुझे बाद में मालूम हुआ की यह गीत रेशमा द्वारा पहले ही गया गया है। मान लीजिये अगर ये नगमे, बेह्तेरिन लफ्जों को दुबारा उन लोगों द्वारा न गया जाता जो हम में लोकप्रिय हैं, तो हम कैसे इन धुनों को गुनगुना  पाते; इसी बहाने हमारा परिचय उन देशों और उनकी संस्कृतियों से हुआ जिनसे हम अनभिज्ञ हैं और शायद होते 

अगर मैं अपने बड़े बुजुर्गों को इस तर्क से संतुष्ट न कर पाया हूँ कि - ' कला अलग संस्कृतियों के लोगों को पास लाने और जोड़ने में सहायक होती हैं ', तो ये उनके लिए ख़ास मैं जिक्र करना चाहूँगा 'अत्ताहुल्लाह खान' का, जिसकी 'बेवफा सनम' के कैसेट शायद बंद अलमारियों में धूल खा रही होंगी अब, पर जिसे बड़ी दिलचस्पी से सुना गया होगा कभी टेप रिकॉर्ड में, पाकिस्तान से है; भले ही हमारा पाकिस्तान से जन्म जन्मान्तर की राजनैतिक वैचारिक असमानताएं हों, पर कला दिलों को छु ही जाती हैं, आखिर सिंध भी तो हिन्द तो साथ ही हिन्दोस्तान था 

और ऐसा थोड़े ही न है की हमने ही सिर्फ दूसरों नकल की है, आप देखें तो हमारी वैदिक रासायनिक पद्धतियों का, रक्षा ज्ञान (कलारिपत्त्यु ) प्रचलन चीन में काफी रहा। योग जो की भारतवर्ष में जन्मी है आज एक नया रूप ले  दुनिया भर में जानी और अपने जा रही है । और दूसरे देश हमपे आक्रमण के ही क्यों करते अगर हमर देश धन कला से संपन्न न होता 


नकल की हानि

मेरे सभी तर्कों के बाबजूद मैं मानता हूँ ही नकल / चोरी के दुष्प्रभाव हैं, और यह हनी उनको है जिनके यहाँ चोरी हुई है। चोरी से सच्चे कलाकार की पहचान जाती रहती है, जो लोग दूर से आया करते थे उसकी कारीगरी के बल बूते , वे अब कहीं और नजदीक में ही अपना काम निबटा लेंगे । बेशक लोग उस कारीगर को जानेंगे तो पर समय के साथ उसकी और उसके संस्कृति की गंध दूसरों के प्रभाव में फीकी ही पड़ती रहेगी , बशर्ते अब मेहनत के साथ प्रचार और शायद प्रपंच- बुधि, छलावा से भी  काम लेना पड़े