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'हरिवंश राय 'बच्चन'' की इन पंक्तियों से लगता है की, जो इनमे संबोधित है उससे मैं ( पाठक ) परिचित हूँ/
हाँ, शायद उसी से परिचय है मेरा, जिससे कवि ने अपनी कुंठा व्यक्त की है/ - जैसे मैं नवागंतुक होऊं कवि के यहाँ, और वो अपने पीछे खड़ी एक लज्जित युवती का परिचय दे रहे हों /
पाठक को; रचना से, रचना के स्वरुप से, उसमें रचित-चरित्र से ऐसा सम्बद्ध - लगाव हो जाता है जैसे साक्षात् रचनाकार ही पाठक को सभी 'तत्वों' से परिचय करवा रहे हों /
या दूसरी तरह से देखा जाये तो; कहीं ऐसा तो नहीं की 'रचित-चरित्र' के ही माध्यम से अपनी अंतर-द्वन्द्वता का परिचय दे रहे हों कवि; शायद कवि उस कल्पित युवती को अपना दुखहर्ता समझ बैठा हो, और इसी कारण हम भी उस युवती के बहाने कवि के दर्द को सुन पा रहे हैं /
कविता में एक मिठास होती है जो अपने लय से मन को विभोर करती, लफ्ज़ सोचने नहीं पड़ते, वे खुद ही जुबान पे आती है, होठ उन्हें गुनगुनाते हैं, ध्वनि तरंगें कहीं फिर छाती से स्फुत्तित होता मालुम पड़ता है ;
मन की कोई कुंठा स्मरण में भी नहीं आती, हमें कुछ भुलाने की जरुरत भी नहीं पड़ती सभी असंगत विचार खुद ही विलोप हो जाती है- सिर्फ लय से नहीं तो उस आंसू , हर्ष , उल्लास के साथ जो लय ले आती है;
आंसू ग़म भुला देती है - और लय आंसू के साथी बनते हैं
बहने दे, मुझे बहने दे ..
बहने दे घनघोर घटा, बहने दे पानी की तरह
सागर में जा मिलना है, बहने दे नदिया की तरह
मैं समझता हूँ की यह गीत 'आँसू ' की आपकही है. पाठक गौर से शब्दों को सुने तो प्रतीत होगा /
गीतकार ने आंसुओ को लयबद्ध किया और अब 'लय में आँसू' की भी एक लय है जो आँसुओं के बहाव में लय लाती है; और लय- आँसू- लय का द्वंद्व बढ़कर हमारे अंतर-द्वंद्व को चूर करती है /
जब ग़म, आंसुओं से बड़ी हो तो फिर सचिन देव बर्मन (घाव पे मरहम न कहें तो, ) ढाढस बंधाते है /
काहे को रोये, चाहे जो होए;दिया टूटे तो है माती, जले तो ये ज्योति बने,सफल होगी तेरी आराधनाकाहे को रोये ?
बहे आंसू तो है पानी, रुके तो ये मोती बने
यह मोती आँखों की पूंजी है, ये न खोये
काहे को रोये
समां जाये इसमें तूफ़ान जिया तेरा सागर सामान
नजर तेरी काहे नादान छलक गयी गागर सामान
जाने क्यूँ तूने ये अन्सुं से नैन भिगोये
काहे को रोये
'बच्चन' अपनी वेदना को स्वर देते है :
कह तो सकते हैं, कहकर ही
कुछ दिल हल्का कर लेते हैं
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा !
-और उनकी ह्रदय- विचलता व्यक्त होती है
कवि मन तो दुसरे की वेदना का भी अपना दुःख समझता है . 'निराला', 'भिक्षुक' में कहते हैं :
पथ पर आता।
....
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!
'बाबा नागार्जुन' ने 'अकाल और उसके बाद' में दुःख के दिन और और बाद की निश्चिन्तता दोनों को बखूबी दर्शाया है. उन अकाल के दुर्दांत दिनों को नजदीक से देखा है, झेला है, उनके शब्दों को पढ़ कर ही पाठक - कम्पित हो उठे, ऐसा वाज़िब है (भले उसने अपने जीवन में ऐसे दिन न देखे हों). और तब राहत के दिन को पढ़ वो भी संन्तुष्ट महसूस करता है .
ये है शब्दों का जादू
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
शारांश :
काव्य की महत्ता - शब्दों की शक्ति
तर्क यहाँ है- ऐसा क्या है कुछ शब्दों में, पंक्तियों में की वो भूले नहीं जाते ? वो है उनकी मिठास, भाव्पुर्नता, जिसके सहित पंक्तियाँ प्रकट की गई है
काव्य, अभिव्यक्ति का एक माध्यम है, यह हर्ष - दुःख - शोक -उल्लास और जीवन के रंगों का समन्वय लिए जन-जन के समक्ष एक मानसपटल को प्रकट करता है. शब्दों में शक्ति होती है,